Wednesday, June 2, 2010


धुआं धुआं हो गयी नज़र
तेरे इंतज़ार को पाले ने मारा है ,

एक ज़लज़ला उठा है फिर
मलबे तले जीवन हारा है ,

अंतहीन तलाश है जाऊं कहाँ
लोग कहते हैं नाकारा है ,

तेरी यादों को भूलने के दर्द ने
लकीरों में तेरा नाम उभारा है ,

सांसों को धड़कन की फ़िक्र है
तभी तो तुम्हारा नाम पुकारा है ,

फलसफा तेरी मोहबत्त का
आईने पर पत्थर मारा है ,

सांसें थामने की कोशिश भर
सुबह पे अँधेरा फिसला है ,

औंधे मुंह सुबह लौटी है
आरिज़ पर सन्नाटा बिखरा है ,

ज़ख्म सूख ही जायेंगे
वक़्त रेत पर फिसला है

Tuesday, May 11, 2010

ये सुबह ताज़ी लगती है

जाने क्यूँ सुबह सुबह लगा की आज मौन रखा जाए ... हंसिये मत ......ख्याल है ..कभी भी आ सकता है ... एक दिन नहीं बोलेंगे तो क्या होगा .... कुछ अच्छा ही होगा ... बोलने में कितनी एनर्जी वेस्ट करते हैं हम .... थोड़ी उर्जा ही बचा लेंगे ... कुछ सेविंग ही हो जाये ...
तो हम बिलकुल चुपचाप अपना काम किये जा रहे थे ... बिना बोले ...कोई कुछ भी बोले ... इशारों में जवाब ..... बेटे ने पुछा , मेरी ब्लेक टी शर्ट कहाँ है .,.. हाथों को गोल गोल घुमाकर बताया मशीन में धुल रही है ,....पति ने कहा , मेरी फ़ाइल नहीं मिल रही है ... एक ऊँगली उठाई ...अरे अरे आप क्या समझे ...? God ...! नहीं नहीं ... ऊँगली से इशारा करके बताया , फ़ाइल टेबल पर रखी है ... पूजा करने बैठी तो काम वाली बाई ने अनाउंस किया ...मेमसाब कल नहीं आउंगी ....
लो ... हो गयी छुट्टी ...
फिर भी खुद पर काबू रखते हुए मौन को कायम रखा ...और हाथ से ????? मार्क बनाते हुए पूछा क्यूँ ...?
कल मेरे बेटे का बर्थडे है ....
काँटा बाई , तुम भी न बस कितनी छुट्टी करती हो . ... अभी तो की ही थी ,... काम कौन करेगा ...
मेरा मौन धराशायी हो चुका था ...
ऐसी तैसी में गया मौन ...
सारा घर खुश .. हमारा मौन व्रत समाप्त हुआ ....
पर वो क्या जाने हमारे दिल की हालत ... हमारा सेविंग वाला डब्बा तो खाली ही रह गया ...


शब्द तो शोर हैं तमाशा है ,
भाव के सिन्धु में बताशा है ,
मर्म की बात होठों से न कहो ,.
मौन ही भावना की भाषा है ,
देह तो सिर्फ सांस का घर है ,
सांस क्या बोलती हवा भर है ,
अच्छा बुरा कुछ भी कहो .,
आदमी वक़्त का हस्ताक्षर है

Friday, April 30, 2010

तो कह देना .....

गर पूछे कोई के दर्द क्या है, तो कहना के
ये जो तेरा मेरा रिश्ता है .....
गर पूछे कोई के ख्वाब क्या है , तो कहना
एक मुट्ठी जिन्दगी पाना है ....
गर पूछे कोई के हाल क्या है , तो कहना
हज़ार टुकड़े आईने में मेरा चेहरा है ....
गर पूछे कोई के मुलाक़ात क्या है , तो कहना
खुद को ढूँढ लूँ .....
गर पूछे कोई के बरसात क्या है , तो कहना
ये जो तेरा गम का दरिया है .....
गर पूछे कोई के आशना क्या है , तो कहना
दिल अभी ढूँढता है ....
गर पूछे कोई के नींद क्या है , तो कहना
दीवारोंसे बाते करता है .....
गर पूछे कोई के मै कहाँ हूँ , तो कहना
पलकें झुकाओ तो ज़रा .....
गर पूछे कोई के पाना क्या है , तो कहना
खुद को खोना ही है पाना ....
गर पूछे कोई के दोस्ती क्या है , तो कहना
आसमान भी रंग बदलता है ....
गर पूछे कोई के सांस क्या है , तो कहना
लब पे आया जो तेरा नाम ......
गर पूछे कोई के पैगाम क्या है , तो कहना
ढाई आखर कबीरा कह गए ......

Monday, April 12, 2010


आज मुझे अपनी याद आई ,

कहाँ भूली थी खुद को ,

किसी किताब की दूकान में रखी

उन तमाम किताबों के

कवर पे लिखे

सुनहरी नामों में ,

या शायद

ग़ालिब की ग़ज़ल के

बगीचे में

दर्द बनकर

अद्रश्य , अस्प्रश्य

जिसे महसूस कर न पाए ग़ालिब

या

कबीर के दोहों में

अजान बनकर गूंजती थी

अथवा राम नाम की माला के

एक मोती में बस्ती थी

या

गुलज़ार की त्रिवेणी की

वो तीसरी पंक्ति में

जो गंगा जमुना

बन न सकी

सरस्वती बनकर

लुप्त थी

या

अमृता के सपने का

वो भूला हिस्सा थी

जो बन न सका नगमा

बस दिखती रही सपना

भूला बिसरा सा कुछ ...

कहाँ स्वयं को छोड़ आई
आज मुझे अपनी याद आई ....

Tuesday, March 30, 2010

लकीरें


काश हाथों में लकीरें न होती ,
यूँ कटी फटी जिन्दगी न होती

कांच की नाजुक दीवारों पे ,
कोई कील चुभी न होती

गिट्टी से खेलती छोटी सी लड़की ,
समय से पहले बड़ी न होती

डोर से कट कर भी पतंग ,
किसी की झोली में गिरी न होती

सीता का अपहरण हुआ न होता ,
धरती भी फटी न होती

Tuesday, March 23, 2010

तुम मिलो तो सही ....


अगले जनम में मिलने का वादा और
खुशबू में भरा ख़त मिला है मुझको

तेरे दर्द का दरिया पी जाऊं मै
अपने अन्दर समंदर मिला है मुझको

सूखे फूल किताबों में मिलें जैसे
हर बार ख्वाबों में मिला है मुझको

तारीख की निगाहों से छुप जायेंगे हम
प्यारा सा इकरार मिला है मुझको

खुद से ही मानूस न थे हम
तुमसे अपना हाल मिला है मुझको

इश्क कि बेवफाइयों से अनजान रहे
बेफिक्री से भरा जाम मिला है मुझको

रास्ता रास्ता ढूँढा किये हम
दिल में तेरा पता मिला है मुझको

Monday, March 15, 2010

और कितने ताजमहल ...

दीदी,,.... " म्हारे पैसे मिल जाते तो यूँ काम अधूरा छोड़कर जाने कि जरुरत न होती"
" पर के करूँ , पैसे भी म्हारे और .... "
कहते कहते रूक गयी और अपने बेटे, जो कि उसके पल्लू को पकडे मुझसे छुपने कि कोशिश कर रहा था , के सर पर हाथ फिराने लगी ....
" अरे ! बता तो क्या हुआ ...?
" क्या बताऊ दीदी , पैसे भी म्हारे , पण म्हारे काम न आये , .... हमने तो उधार भी न मांगे थे ... "
फिर गहरी सांस लेते हुए अपने बेटे को देखने लगी ....कुछ देर रूक कर बोली ...
" ये तो म्हारा जी ही जाने है , सचिन को हस्पताल में भरती किया तो कौन कौन से उधार लेकर हस्पताल का बिल भरा "
बस अब न .....
" अब तो यहाँ जी न लग रा... अपना घर उजाड़ के बस्ती न बनानी है ..... रोड़ी - बजरी से खेले है म्हारे बच्चे पर जान तो उनमे भी है ....सेठों के रहने के वास्ते कोठियां ही कड़ी करनी है न , जो पैसे देगा उसका महल बना ही देंगे .... "
"कंही भी जायेंगे काम तो मिल ही जाएगा |" " इन वाले लाला से हमें कुछ न चाहिए ... बस जा रहे हैं कल .... "
कहकर शांति अपनी मैली धोती के पल्लू से अपने बेटे के मुंह पर लगी रेत पोछने लगी ... मै सोच रही थी , अभी कितने शहंशाह अपने ताजमहल बनाकर कारीगरों के हाथ कटवाएँगे ....?






और सोचने को बाकी क्या रहा

सूरज भी उसको ढूंढ कर वापस चला गया ,
अब हम भी घर को लौट चलें शाम हो चुकी ....

हाल पूछा था उसने अभी ,
और आंसू रवां हो गए ...