Wednesday, January 18, 2017

       कॉफी का मग
      कुछ किताबें
     थोड़ी परछाइयां
   और शाम का साया ...



इन सबके छुप कर चले आते हो तुम ..... 

Friday, January 13, 2017

ट्रे में रखे कॉफी के कप से उठता धुंआ आज फिर किसी का अरमान जला हो जैसे ....


ख्यालों में डूबी रहीं सिसकियाँ ...बादल को भी ग्रहण लगा हो जैसे 


Monday, August 18, 2014




      चाँद जब तक दूर है , कितना अच्छा लगता है   … 





अपने दोस्त को गांव से आया देख                            
उससे रुका नहीं जा रहा था ,
हाल जानने का उतावलापन
चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा था ,
पत्नी ने खाना परोसा तो ,
गांव में जलते चूल्हे से उतरी
गरम रोटी , छौंकी हुई दाल
और धुएं वाले  मट्ठे की खुशबू ,
आँखों के आगे तैरने लगी ,
" क्या अब भी वहां वैसे ही दिन उगता है
वैसे ही रात ढलती है ? "
वो पूछना चाहता था ...
वो पूछना चाहता था ,
क्या अब भी वहां की मिटटी
बरखा की बूंदों से महका करती है ?
क्या अब भी नहर गांव के शैतान लड़को
की राह देखा करती है ?
अब भी पानी में छपाक कूदने की आवाज़ों से
सुबह की नींद खुला करती है ?
कितनी आहटें
उसके द्वार खटखटाने लगी थी
इनमे उसका बचपन था ,
किशोरावस्था थी ,
योवन था , भोलापन था ,
इनमे उसकी भूली यादें थी
खुशियो वाली चाबी थी ,
लड़ना मचलना था
पहियों का गोल गोल घूमना था ,
पत्थरों का तड़ा तड़ी वाला खेल था      
उसकी चोटों का मीठा सा दर्द था ,
जाने कितनी आहटें
जिन्हे वो ठुकरा आया था
वो सब जानने को उत्सुक था |

तुम्हे क्या बताऊँ   दोस्त ,
हमारा गांव अब गांव नहीं रहा ,
छत को देखते दोस्त की
ऑंखें कह रही थी ,
घर में खलिहान की और
खेत में बहन की
आबरू न रही ,
वो गोल गोल घुमते पहिये की
दुनिया न रही .
सोचा शहर में बच्चे पढ़ लिख जायेंगे
कुछ तमीज सीख जायेंगे
कुछ बन जायेंगे ,
वरना पत्थरों से लकीरें खींचकर
अपने ख़ुदा उगाएंगे ,
असलहों को तकिये के नीचे
रखकर सोते हैं
अब गांव में ऐसे हम जीते हैं |

हर आँख में यादों का
काफिला चलता है ,
चाँद जब तक दूर है
कितना अच्छा लगता है |






































Monday, April 7, 2014






आंधी से सैलाब से 
कब डरी हूँ मै , 
शोला हूँ चिंगारी हूँ 
लपटों में घिरी हूँ मै  , 
हालात ऐसे आते हैं 
जो मुझे डराते हैं , 
पैदा करने वाले ही 
मुझसे कतराते हैं , 
इश्क़ के नकली फूल 
मेरी कब्र पर चढ़ाते हैं , 
प्यार के थोथे समुन्दर से 
डूब के उबरी हूँ मै। ....... 

माला में पिरा 
मोती नहीं , 
दीप है पर 
ज्योति नहीं , 
तन्हां हूँ मगर अपनी 
आस छोड़ती नहीं, 
किनारा हूँ लहरों का 
मर्यादा अपनी 
खोती नहीं , 
अंसुअन तन 
भीगी हूँ मै ,
ताप में तप के 
तप तप के 
निखरी हूँ मै। …

देह तो इच्छा मात्र है , 
ह्रदय पहुँच से बाहर है , 
छूना बस एक किर्या है , 
स्पर्श तो संज्ञा है । 
कहने को देवी हूँ मै 
नज़रों ने तो लूटा है , 
नभ में तारा नहीं 
इस बार चाँद टूटा है , 
किताबों के कवर पर 
खूब बिकी हूँ मै ,
सुनहले इतिहास में 
कब लिखी हूँ मै.…… । 
















Tuesday, August 27, 2013

ये कैसी गर्म हवा है 
बहते आंसू ही सूख गए है 
तड़प उठी हैं पेड़ों की शाखें 
कहाँ अब बादल गए हैं। । 
नरमी लेकर आते थे 
दिल भीग जाता था अक्सर 
कोमल पांवों को अब 
चुभते पत्थर दे गए हैं। 
यूँ न कतराओ हमसे 
बीते मौसम लौट आओ 
परेशां है रात सारी 
दिन भी बुझ से गए हैं। । 


Wednesday, May 29, 2013

अरे ! यहाँ इसी गाँव में , 
एक नदी हुआ करती थी |
अल्हड , चंचल , शोख सी , 
थोड़ी मासूम ओस सी , 
इसी गांव में रहती थी , 

अनगिन लहरें उसकी , 
उठती , गिरती , फिर उठती ,
उमंग से भरी ,
ममता से भरी , 
अंक में भर लेती थी मुझको ,
मेरे तमाम विषादों को ,
अपने ह्रदय तल में जा रखती |
वो नदी कहाँ गयी ? 
वो यहीं कहीं हुआ करती थी,
वो नदी कहाँ गयी ? 

चिलम भर कर बैठे काका , 
हुक्का गुड गुडाना भूल गए , 
हाथ हवा में उठ गए ,
पलकों के किनारे भीग गए , 
बोले , एक तूफ़ान ऐसा आया , 
कुछ भी न बच पाया , 
आबरू उस चंचला की 
तार तार हो गयी , 
लुटी तरंगिनी एक दिन 
खुद ही में सिमट गयी , 
शर्म से हर पल मरती 
वो सरिता बहना भूल गयी , 
जब कोई ठौर न पाया ,
धरती की गोद में सो गयी |

बिन लाडो सूना गाँव अब , 
बरखा को तरसता गाँव अब , 
हर साल गए सावन आता है ,'
झूले खाली देख लौट जाता है ,
बूढी माँ सूखे आंसू रोती है , 
वो निर्झरा वो सरस्वती , 
अब धरती के नीचे बहती है | 

Tuesday, May 14, 2013

रात डाकिया बनकर आती है ,
प्यार के इन्द्रधनुष वाला 
ख़त तुम्हारा लेकर , 

जो लिखा था शाम को तुमने 
और मेज़ पर ही छोड़ आये थे ....

ये रंग हैं या लफ्ज़ तुम्हारे 
हया से आते जाते हैं , 
ख्वाब बनकर सुनहरा ये 
चांदनी रात में आते है ....

रात ढलेगी होगा उजाला 
गुलमोहर ये बन जायेंगे , 
चुन चुन कर उँगलियों से 
घर अपने ले आयेंगे ....