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Sunday, April 5, 2009

किनारे पर .... ज़िन्दगी

मरे मन की तरंगों सी
उठती हैं सागर में हिलोरें
पथरीले किनारों सी टकराकर
करती हैं जाने क्या बातें ।
बेजान से दिखने वाले
सह्रदय किनारे
सब कुछ सुनते हैं
पर खामोश रहते हैं ।
व्यथा अपने में समेट कर
उसे मर्यादा में बंधे रहते हैं ।
भावनाओं के साथ बह जाना
शायद इन्होने नही सीखा है
तभी तो इनका ह्रदय भी
इनके जैसा पथरीला है ।
समय के थपेडों ने घिस घिस कर
चिकना बना दिया है
वक्त की काई भी जम गई है ।
अब तो सागर को भी
इन पत्थरों से सर मारने की
आदत सी हो गई है ।