आज मुझे अपनी याद आई ,
कहाँ भूली थी खुद को ,
किसी किताब की दूकान में रखी
उन तमाम किताबों के
कवर पे लिखे
सुनहरी नामों में ,
या शायद
ग़ालिब की ग़ज़ल के
बगीचे में
दर्द बनकर
अद्रश्य , अस्प्रश्य
जिसे महसूस कर न पाए ग़ालिब
या
कबीर के दोहों में
अजान बनकर गूंजती थी
अथवा राम नाम की माला के
एक मोती में बस्ती थी
या
गुलज़ार की त्रिवेणी की
वो तीसरी पंक्ति में
जो गंगा जमुना
बन न सकी
सरस्वती बनकर
लुप्त थी
या
अमृता के सपने का
वो भूला हिस्सा थी
जो बन न सका नगमा
बस दिखती रही सपना
भूला बिसरा सा कुछ ...
कहाँ स्वयं को छोड़ आई
आज मुझे अपनी याद आई ....
20 comments:
उम्दा भाव:
जो गंगा जमुना
बन न सकी
सरस्वती बनकर
लुप्त थी
-क्या मिलान किया है...
'सुनहरी नामों ' - सुनहरे नामों
अद्रश्य - अदृश्य
अस्प्रश्य - अस्पृश्य
बस्ती - बसती
दिखती रही सपना - देखती रही सपना
@ कबीर के दोहों में अजान - मोको कहाँ ढूढ़े रे बन्दे !
कविता का भाव पक्ष उत्तम है।
आभार।
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
अमृता के सपने का
वो भूला हिस्सा थी
जो बन न सका नगमा
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....
यूँ अपने आप को ढूंढना ही सफ्हो में गुम हो जाना है
waah.... ab jo yaad aai apni, kinara mil jayega
बहुत उम्दा भावों से सजी खूबसूरत रचना..
शब्दों का सुन्दर प्रयोग!
सही विवेचना!
पोस्ट खोलते ही गजल का भी आनन्द मिल गया!
kaafi dinon ke baad aapki rachna padhne ko mili ..
achha laga...
bahut hi behtareen rachna...
mere blog par is baar..
वो लम्हें जो शायद हमें याद न हों......
jaroor aayein...
इस पोस्ट की तर्चा यहाँ भी तो है-
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_13.html
Bahut khoob .. kya kalpana hai .. Gulzaar ki triveni ki teesri pankti .. saraswati .. Gaalib ki gazlon ka dard ... khud ko pahchaanti lajawaab prastuti ...
कबीर के दोहों में
अजान बनकर गूंजती थी
अथवा राम नाम की माला के
एक मोती में बस्ती थी शब्दों का सुन्दर कोलाज---बहुत बढ़िया ढग से आपने यादों को संजोया है।
tumhe apni yaad aai to dekho
tum pukhraj hui.......
बहुत सुंदर शब्दों का प्रयोग .....!!
kahin gum hoon, chaandni ke saath jeeti hoon, jalti hoon, marti hoon..kahin na kahin fir khud ko talashne nikalti hoon..
shaandaar hai ji...
kunwar ji,
मन को छू जाने वाले भाव।
हार्दिक बधाई।
--------
गुफा में रहते हैं आज भी इंसान।
ए0एम0यू0 तक पहुंची ब्लॉगिंग की धमक।
सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.
कविता को पसंद करने का आप सभी का बहुत बहुत आभार , संजय जी , आपने बिलकुल सही फरमाया अच्छी कविताओं को बार बार पढने का मन करता है , और आपने मेरी कविता को उस श्रेणी में रखा , बहुत बहुत आभार ...
Post a Comment