Sunday, June 21, 2009

ये रिश्तों की प्यास ...



अगर कोई अपने अतीत का लेखा - जोखा करे , तो उसे अपनी जिन्दगी में ही अनेक अलग अलग किस्म की जिंदगियों के सूत्र मिल सकते हैं । यह संयोग की बात है की किसी एक दिन गलती से या शायद अपनी इच्छा से एक ख़ास किस्म की जिन्दगी चुन लेता है और आख़िर तक उसे निभाए जाता है । सबसे शोचनीय बात तो ये है कि वे दूसरी जिंदगियां , जिन्हें उसने नही चुना ....मरती नहीं । किसी न किसी रूप में वे उसके भीतर जीवित रहती हैं । हर आदमी को उनमे एक अजीब से पीड़ा महसूस होती है ...जैसे टांग के कट जाने पर होती है ।



उन दिनों जब मुझ पर टिकट जमा करने कि धुन सवार हुयी थी , मेरे पिता को मेरा यह शौक ज्यादा पसंद नहीं था । यह स्वाभाविक भी है क्योंकि वास्तव में अधिकाँश लोग यह नहीं चाहते कि उनका पुत्र कोई ऐसा काम करे , जिसे उन्होंने स्वयं कभी नहीं किया । पुत्र के प्रति पिता कि भावना अंतर्विरोधों से भरी रहती है ...स्नेह तो उसमे अवश्य होता है किंतु उसमे एक हद तक पूर्वग्रह , अविश्वास और विरोध के तत्व भी मिले रहते हैं । आप अपने बच्चों को जितना प्यार करते हैं , उतनी ही मात्रा में विरोध भी ...और यह विरोधी- भावना स्नेह के साथ साथ बढती जाती है ।



कारेल चापेक( टिकटों का संग्रह ) की इस कहानी में पिता और पुत्र के रिश्ते का जो वर्णन किया गया है अद्भुत है ...सच ही है हम सभी एक बनावटी जिन्दगी जीते जाते हैं जो असली जिन्दगी में था उसे कभी पहचान ही नहीं पाते ....बैसाखियों के सहारे चलती इस जिन्दगी में छिपे हुए स्नेह को पहचानने कि ताकत हम्मे है ही कहाँ ....



11 comments:

ओम आर्य said...

बैसाखियों के सहारे चलती इस जिन्दगी में छिपे हुए स्नेह को पहचानने कि ताकत हम्मे है ही कहाँ ....

वाह एक बहुत ही सुन्दर और साफ वयानी करता लेख .............मनोविष्लेशन पर आधारित लेख ..................उत्तम

डॉ .अनुराग said...

कहते है हिन्दुस्तानी पिता -पुत्र का रिश्ता भी अब बदल रहा है .स्नेह की जो डोर अनुशासन ने कस रखी थी ,खुल गयी है .शायद आने वाली पीढी को जिम्मेवारी देने का अहसास है....
ब्लॉग का नया टेम्पलेट अच्छा है....

daanish said...

डॉ अनुराग जी ने बिलकुल ठीक कहा है
कि अनुशासन कि डोर टूट रही है ...
पिता-पुत्र के संबंधों पर रौशनी डालते हुए
आपके विचार सार्थक लगे .
बधाई

---मुफलिस---

Udan Tashtari said...

यह किसी कथा की समीक्षा है क्या. पूरी कथा कैसी पढ़ी जा सकती है?

Anonymous said...

excellent observation on son-father relations...this relation, in my view, is getting stronger day by day. Earlier it may be, as u also mentioned, that father did not want their son to do what they didn't, nw things are different. Increasing no. of fathers' want their son to pursue his own path,...
again excellent observation on Father's Day

Renu goel said...

किसी भी रिश्ते की डोर ज़्यादा खिंच जाए तो टूटने का डर बना रहता है , और थोड़ी सी ,( ज़्यादा नहीं ), ढील दे दो तो बंधन और मज़बूत होते जाते हैं , ये सिर्फ़ मैने ही नहीं आप सभी ने अपनी जिंदगी मे देखा ही होगा .....अनुराग जी सही कह रहे हैं , आने वाली पीढ़ी को ज़िम्मेवारी देने का अहसास है .... इससे रिश्ते कितने मजबूत हुए , ये तो आने वाला समय ही बताएगा.....फिलहाल , समीर जी ने पूछा ये कहानी कहाँ पढ़ी जा सकती है ....तो समीर जी मैने कारेल चापेक की यह कहानी ( टिकटों का संग्रह ) एक कहानी संग्रह , जिसका नाम "बोलता लिहाफ़" है
मे पढ़ी है ......आपको इस किताब मे अन्य खूबसूरत कहानियाँ भी पढ़ने को मिल जाएँगी ......

ज्योति सिंह said...

pukhraj ji ,main bohat dino se aap se judne ki koshish me rahi aaj kishore ji blog se rasta mila .aapki rachana me jo baate uthai gayi hai woh aham aur sochniye hai .aage kahi gayi baton se main bhi sahamat hoon .umda .

Anonymous said...

khayalat is very good. Hight thinking. "Ek din admi ek jingagi chun leta hai aur use hi jeena shuru kar dena hai." acha likhe lete hain aap... apni kalam ko chalate raho..

Keep it up....

अमिताभ श्रीवास्तव said...

jindagi hoti hi padaavo vaali he// isame tarah tarah ke rang naa dikhe, yaa anubhav naa ho to aap jindagi ko vyakhyatit nahi kar sakte/ jab umra badalti he to jindagi ka mizaz bhi badalta he///

डिम्पल मल्होत्रा said...

sach me yeh rishto ki pyaas hai....boht khubsurti se likha hai aapne...

Dr. Amarjeet Kaunke said...

kia aap karel chapek ki yah kahaani mujhe send kar sakte ho....mai puri kahaani padni chahta hun....apne bahut khubsurat likha hai....dr.amarjeet kaunke

amarjeetkaune@yahoo.co.in
098142 31698