Friday, May 1, 2009

आतंकवाद...



तपता रेगिस्तान ,
खामोश गलियां ,
सुनसान मकान ,
बस पांवों के ,
चंद निशान,
पत्थर के बुत ,
गूंगी ज़बान ।
भटकती मृग तृष्णा ,
भटकता जहान ,
बोलता वीराना ,
सुनते मकान ,
फैली भयावहता ,
कांपा श्मशान ।

5 comments:

श्यामल सुमन said...

बहुत खूब।

दहशतगर्दी का दामन क्यों थाम लिया इन्सानों ने।
धन को ही परमेश्वर माना अवसर चुनना सीख लिया।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Udan Tashtari said...

सही परिभाषित किया.

RAJNISH PARIHAR said...

BOLTE VERANA,SUNTE MAKAAN...sahi chitran kiya 'aantakvaadf'ka aapne...

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

बहुत खूब
.
बहुत अच्छी कविता .

dr.m.d.sharma said...

very good, well said