लो , सांवरे का जन्मदिवस फ़िर आ गया ...नगर में , मंदिरों में फ़िर धूम होगी , झांकियां सजी होंगी , रौशनी की गूँज होगी , कृष्ण की मुरलिया होगी , और होंगी सबकी प्यारी , बानी ठानी , चंदन सुवासित , कान्हा के ह्रदय सिंहासन पर राज करने वाली , ब्रज कुमारी , अलबेली राधा रानी ....
देवकी नंदन के जन्म से पहले ही सारी मथुरा नगरी को ज्ञात हो गया था की अत्याचारी राजा कंस के आतंक से मुक्ति दिलाने वाला उनका तारनहार अब जन्म लेने ही वाला है ...मथुरा की प्रजा को प्रतीक्षा थी उस पल के आगमन की ....और प्रजा ही क्यों ...यमुना के किनारे रहने वाले ऋषि -मुनि , पशु पक्षी , अपने प्रवाह में मग्न यमुना , पृथ्वी गगन , मस्त चल में दिशारत पवन , वह मयूर जो अपना सौंदर्य उन पर न्यौछावर करने को आतुर , और वो मुरली जिसे सबका प्यारा ग्वाला अपने मधुर अधरों का स्पर्श देने वाला था ....
यमुना की तो खुशी का ठिकाना ही न था ....उमड़ उमड़ , उठ गिर लहरों से अपनी खुशी का प्रदर्शन कर रही थी ...प्रेम रस में भीगा हुआ अमृत सा यमुना जल बढ बढ़ कर कृष्ण को अपनी और आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था ...उनके चरणों के एक स्पर्श को आतुर हर धारा अपने निर्दिष्ट की और जाना ही नहीं चाहती थी ....देवकीनंदन के मधुर रूप के दर्शन से तृप्त हुए बिना कैसे मथुरा को छोड़ कर जांए और ऊपर से ये सांवरे मेघ .... स्वयं को कान्हा के रंग में रंगे घुमड़ घुमड़ कर अपने प्रेम का प्रदर्शन करते , सारी मथुरा नगरी में प्रेम जल की रसधार बरसते ॥रात्री की कालिमा को और भी गहराते ..विभिन्न आकृतियों में रूप बदल बदल कर ह्रदय विस्मृत करते ...बंदीग्रह के रक्षक द्वारपालों की स्मृति को छिन् भिन्न करते ..उस मधुकर के स्वागत में नीर भरी पलकों से याचना करते ..यत्र तत्र सर्वत्र विराजित प्रतीक्षा रत थे .....
आनंद और आतुरता का अद्भुत संगम था ...यमुना उठ उठ कर श्याम मेघों को ह्रदय लगाती थी तो कृष्ण घन झुक झुक कर यमुना को स्पर्श कर अपनी प्रसन्नता का प्रदर्शन करते ...मेघ और यमुना दोनों नीर से भरे परन्तु अथाह क्षुधा से पीड़ित ....
सावन माह में कैलाश जाकर इन मेघों ने नीलकंठ की विष से उद्यत अग्नि को गंगा के साथ मिलकर शांत किया था ....इन्ही मेघों ने भाद्रपद मास में वन्मयुर के साथनृत्य उत्सव का प्रयोजन किया ....तब ही तो कान्हा के प्रिय मयूर ने उन्हें अपने लंबे , घने पंखों से रिझा लिया ....नित्य उनके केश सौंदर्य हेतु उन्हें इन्द्रधनुषी छठा लिए नीलाभ पंख प्रदान किया करते थे ....
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्य रात्रि अभिजित नक्षत्र का योग और प्रभु के अवतरण की बेला ....बहार आकाश में दामिनी कड़क कर पहरेदारों को भयभीत कर अपनी कोठरियों में सोये रहने को विवश कर रही थी ...और अपनी चमक से वासुदेव के गोकुल गमन के मार्ग को प्रकाशित कर रही थी .....
यमुना ने प्रभु को अपनी और आते देखा तो पहले उनके चरणों का स्पर्श कर नमन किया ...और उनके मुख को देख तृप्त हो वासुदेव के प्रस्थान हेतु जल को दो भागों में विभाजित कर मार्ग प्रदान किया .... यमुना में आई बाढ़ और वर्षा थम गई ....जल के विभाजन से यमुना की चमकीली रेत दिखाई देने लगी ....मध्य में रेतीला मार्ग और दोनों और यमुना जल की प्रचंड दीवारें .....वासुदेव कृष्ण को उठाये उठाये हुए अग्रसर हुए .... ज्यूँ ज्यूँ वासुदेव आगे बढ़ते जाते ....आगे का मार्ग प्रदीप्त होता जाता ...तथा पीछे जल की दीवारें फ़िर जुड़कर , प्रभु को नमन कर अपने निर्दिष्ट की और बढती जाती ....
समस्त वातावरण में व्याप्त हुई निःशब्दता , शुन्यता को देखकर प्रतीत होता था की समस्त प्रकृति संरचना प्रभु की लीला को कंस से अज्ञात रखना चाहती हो ....
प्रातः की किरण एक नए सवेरे का संदेश लेकर सारी नगरी में उतरी ....सवेरे की इस किरण में मुरली की अद्भुत , मनमोहिनी तान सुनाई दे रही थी परन्तु बजा कौन रहा था , कोई नही जनता था ... नन्द बाबा सवेरे स्नान कर घर वापस आए तो देखा उनके घर उत्सव का आयोजन हो रहा है ...ग्वाल बाल उधम के साथ घोष कर रहे थे ....नन्द के घर आनंद भयो , जय कानहिया लाल की ...हाथी घोड़ा पालकी ....
बालक का मेघश्याम सा रूप देखकर मन ही मन मोहित होते नन्द ने बालक के सर पर नील्हारित मयूर पंख निर्मित मुकुट सजा कर उसे चूम लिया और बालक को नाम दिया ....श्री कृष्ण