अगर कोई अपने अतीत का लेखा - जोखा करे , तो उसे अपनी जिन्दगी में ही अनेक अलग अलग किस्म की जिंदगियों के सूत्र मिल सकते हैं । यह संयोग की बात है की किसी एक दिन गलती से या शायद अपनी इच्छा से एक ख़ास किस्म की जिन्दगी चुन लेता है और आख़िर तक उसे निभाए जाता है । सबसे शोचनीय बात तो ये है कि वे दूसरी जिंदगियां , जिन्हें उसने नही चुना ....मरती नहीं । किसी न किसी रूप में वे उसके भीतर जीवित रहती हैं । हर आदमी को उनमे एक अजीब से पीड़ा महसूस होती है ...जैसे टांग के कट जाने पर होती है ।
उन दिनों जब मुझ पर टिकट जमा करने कि धुन सवार हुयी थी , मेरे पिता को मेरा यह शौक ज्यादा पसंद नहीं था । यह स्वाभाविक भी है क्योंकि वास्तव में अधिकाँश लोग यह नहीं चाहते कि उनका पुत्र कोई ऐसा काम करे , जिसे उन्होंने स्वयं कभी नहीं किया । पुत्र के प्रति पिता कि भावना अंतर्विरोधों से भरी रहती है ...स्नेह तो उसमे अवश्य होता है किंतु उसमे एक हद तक पूर्वग्रह , अविश्वास और विरोध के तत्व भी मिले रहते हैं । आप अपने बच्चों को जितना प्यार करते हैं , उतनी ही मात्रा में विरोध भी ...और यह विरोधी- भावना स्नेह के साथ साथ बढती जाती है ।
कारेल चापेक( टिकटों का संग्रह ) की इस कहानी में पिता और पुत्र के रिश्ते का जो वर्णन किया गया है अद्भुत है ...सच ही है हम सभी एक बनावटी जिन्दगी जीते जाते हैं जो असली जिन्दगी में था उसे कभी पहचान ही नहीं पाते ....बैसाखियों के सहारे चलती इस जिन्दगी में छिपे हुए स्नेह को पहचानने कि ताकत हम्मे है ही कहाँ ....