जिन्दगी हर्फ़ बन कर रह गई अब
किताब की शक्ल में छप कर रह गई अब।
माजी से पलटो कुछ वरक
खुशबुओं से रूह नहा जायेगी ,
जहाँ तहां से सिमटी थी खुशियाँ
दीवारों से चिपक कर रह गई अब ।
वो गुजरे ज़माने की बात थी कभी
वो झगडा वो तकरार सभी ,
वो हसीं घूम फ़िर कर
होठों पे नाचा करती थी तब ।
शब्द बन कर बेजान हो चुके हैं जो
उन फूलों पे जिन्दगी लौट कर ना आएगी ,
कह दो चमन से जाकर कोई
शाम जिन्दगी की होने लगी अब ।
चाँद आए ना आए क्या फर्क पड़ता है
रात हो ना हो क्या फर्क पड़ता है ,
दिन भर ख़ुद से बातें करते हैं
रात को भी हम सोते नही अब ।
चलते चलते .....
बर्फ से पिघल गए आंसू
बनकर अंगार जल गए आंसू
कितना थामा था ख़ुद को महफ़िल में
लफ्ज़ बनकर निकल ही गए आंसू
2 comments:
बहूत खूब
मुझको यकीं है सच कहती थी
जो भी अम्मी कहती थी..
सच
हम अपनेपन के मूल्यों को ख़त्म कर रहे हैं.
बर्फ से पिघल गए आंसू
बनकर अंगार जल गए आंसू
कितना थामा था ख़ुद को महफ़िल में
लफ्ज़ बनकर निकल ही गए आंसू
bahut sunder likha hai ....
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