Wednesday, May 29, 2013

अरे ! यहाँ इसी गाँव में , 
एक नदी हुआ करती थी |
अल्हड , चंचल , शोख सी , 
थोड़ी मासूम ओस सी , 
इसी गांव में रहती थी , 

अनगिन लहरें उसकी , 
उठती , गिरती , फिर उठती ,
उमंग से भरी ,
ममता से भरी , 
अंक में भर लेती थी मुझको ,
मेरे तमाम विषादों को ,
अपने ह्रदय तल में जा रखती |
वो नदी कहाँ गयी ? 
वो यहीं कहीं हुआ करती थी,
वो नदी कहाँ गयी ? 

चिलम भर कर बैठे काका , 
हुक्का गुड गुडाना भूल गए , 
हाथ हवा में उठ गए ,
पलकों के किनारे भीग गए , 
बोले , एक तूफ़ान ऐसा आया , 
कुछ भी न बच पाया , 
आबरू उस चंचला की 
तार तार हो गयी , 
लुटी तरंगिनी एक दिन 
खुद ही में सिमट गयी , 
शर्म से हर पल मरती 
वो सरिता बहना भूल गयी , 
जब कोई ठौर न पाया ,
धरती की गोद में सो गयी |

बिन लाडो सूना गाँव अब , 
बरखा को तरसता गाँव अब , 
हर साल गए सावन आता है ,'
झूले खाली देख लौट जाता है ,
बूढी माँ सूखे आंसू रोती है , 
वो निर्झरा वो सरस्वती , 
अब धरती के नीचे बहती है | 

Tuesday, May 14, 2013

रात डाकिया बनकर आती है ,
प्यार के इन्द्रधनुष वाला 
ख़त तुम्हारा लेकर , 

जो लिखा था शाम को तुमने 
और मेज़ पर ही छोड़ आये थे ....

ये रंग हैं या लफ्ज़ तुम्हारे 
हया से आते जाते हैं , 
ख्वाब बनकर सुनहरा ये 
चांदनी रात में आते है ....

रात ढलेगी होगा उजाला 
गुलमोहर ये बन जायेंगे , 
चुन चुन कर उँगलियों से 
घर अपने ले आयेंगे ....