Wednesday, April 22, 2009

एक पहलू

हनीमून जोड़ा बैठा है
शाहजहाँ मुमताज की कब्र पर
हाथों में हाथ डाले
आँखें बंद कर ...
जैसे उनकी रूहों से
प्रार्थना करते हों
उनके जैसा प्यार
हमारे बीच रहे सदा ....
फ़िर चक्कर लगाता है
कब्र के चारों और
जैसे उनका प्यार चुरा रहा हो
कब्र से
जैसे कोई मांग ले
तकलीफें किसी की ...
सच्चे दिल से निकली दुआ
कुबूल होती है
पर अब जिस्म हैं
रूहें कहाँ
कहने को प्यार है
पर दिल कहाँ
यहाँ मकबरे से बाहर जाने के बाद ...
वो हनीमून जोड़ा
कुछ ही समय में
बन जाता है सिक्का
और वो दोनों
सिक्के के दो पहलू....
जो साथ रहते तो हैं
मगर
एक दूसरे का चेहरा कभी नही देखते
फ़िर भी हनीमून जोड़े आते रहेंगे
मकबरे पर जाकर
प्यार की लम्बी उम्र की
दुआ मांगते रहेंगे
सदा.... सदा ....सर्वदा ....

Thursday, April 16, 2009

उसकी हँसी ....


वो नही हंसती ....बिल्कुल नही हंसती ...कभी आप उसे हँसते हुए देख ही नही सकते .,....बल्कि मै तो कहूँगी की आप उसे देखें तो कहेंगे की इसे किस बात का दुःख है ....सब कुछ तो है उसके पास ...क्या सारी दुनिया के दुखों का ठेका इसी ने ले रखा है ....उसके सामने आप कुछ भी हँसी मजाक कर लें पर मजाल है जो कभी उसके चेहरे पर हँसी के दो कतरे भी उभर आयें ....क्या नहीं है इसके पास ...अच्छी खासी बैंक में नौकरी करती है , अपना मकान है .... वंही किसी से शादी कर घर क्यों नही बसा लेती ...कोई रोकने टोकने वाला तो है नही ....
हाँ ......
यही तो दुःख है उसे ...अब सही समझे आप.... कोई रोकने टोकने वाला नही है ....मम्मी - पापा ..दोनों में से कोई नही ....काश! कोई उसके सर पर हाथ रखने वाला होता ...क्या ग़लत है , क्या सही , बताने वाला होता ...पर ...
चाहने से क्या होता है ....
उनके बाद जिन भाई बहन का सहारा दिया भगवान् ने ..उनके घर बसा कर उसने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली ....
भाई अपने हिस्से का मकान ले कर अपने परिवार के साथ खुशी से रहता है ...अब ये मत पूछना उसके हिस्से में क्या है .....क्यूंकि वहां दर्द के सिवा कुछ नही मिलेगा ....चार दीवारों के साए जब आपस में बातें करते हैं तो घर और भी भयानक लगने लगता है .... बाहर की दुनिया ॥! हूँ ॥! पूरा गाँव ही लुटेरा लगता है ....
कोई तो होता जो हक से कहता , ये लड़का मैंने तेरे लिए पसंद किया है , तुझे इसी से शादी करनी है ....तब शायद उसे आपत्ति होती ....पर अब उसे किसी बात से आपत्ति नहीं है ....
अब समझे आप वो क्यूँ नही हंसती ...?
पर ऐसा नहीं है वो कभी हँसी ही नहीं ....उसने हसीं को देखा ही नहीं , भरपूर जिया भी है ...जब वो मेरे साथ पढ़ती थी ...जी हाँ हम दोनों साथ साथ पढ़े हैं ....हाँ तो ....जब हम पढ़ते थे तो वो बात बात पर खिलखिला कर हंसा करती थी ....बल्कि ख़ुद ही ऐसी बातों की शुरुवात किया करती थी की सब सहेलियां हंस पड़ती थी ....सात आठ लड़कियों का ग्रुप बना कर लीडर बनी फिरती ....एक बार तो प्रिंसिपल के अगेंस्ट आवाज़ उठाई ...वो आगे आगे चल रही थी ....

याद करके मुझे आज भी हँसी आ जाती है ...प्रिंसिपल थी हमारी कड़क ...रोबदार ....उनको देखते ही सबकी सिट्टी -पिट्टी गुम ...एक आवाज़ में सब की सब अन्दर क्लास में ....फ़िर अन्दर जाकर हम सब खूब हँसे ...

पर आज उसे बिल्कुल हँसी नहीं आती ......आप उसका नाम जानने को उत्सुक होंगे ...पर माफ़ करियेगा ...मै उसका नाम नही बताऊंगी .....बस वो जहाँ भी रहे खुश रहे ....आबाद रहे ....

Wednesday, April 15, 2009

शाम-ऐ-जिन्दगी

जिन्दगी हर्फ़ बन कर रह गई अब
किताब की शक्ल में छप कर रह गई अब।
माजी से पलटो कुछ वरक
खुशबुओं से रूह नहा जायेगी ,
जहाँ तहां से सिमटी थी खुशियाँ
दीवारों से चिपक कर रह गई अब ।
वो गुजरे ज़माने की बात थी कभी
वो झगडा वो तकरार सभी ,
वो हसीं घूम फ़िर कर
होठों पे नाचा करती थी तब ।
शब्द बन कर बेजान हो चुके हैं जो
उन फूलों पे जिन्दगी लौट कर ना आएगी ,
कह दो चमन से जाकर कोई
शाम जिन्दगी की होने लगी अब ।
चाँद आए ना आए क्या फर्क पड़ता है
रात हो ना हो क्या फर्क पड़ता है ,
दिन भर ख़ुद से बातें करते हैं
रात को भी हम सोते नही अब ।


चलते चलते .....

बर्फ से पिघल गए आंसू
बनकर अंगार जल गए आंसू
कितना थामा था ख़ुद को महफ़िल में
लफ्ज़ बनकर निकल ही गए आंसू

Friday, April 10, 2009

मेरी आस्था .....

एक ज्योतिष ने कहा ....
बरगद की पूजा करो
धन धान को
लक्ष्मी निवास को
आरोग्य वास को
भाग्योंन्नती को
एक दिया रोशन करो
पर कहाँ ...?
हरियाली कहीं नज़र नही आती
इमारतों की परछाई में भी
वो छांव कहाँ
बहुमंजिली ईमारत के पांचवे माले पर
बरगद उगा भी नही सकती
नर्सरी जा कर बरगद का बोनसाई
ले आई हूँ
अब नित दिए की रौशनी
दिखाती हूँ बरगद को
बदलता परिवेश
आस्था कैसे मगर बदले
गगनचुम्बी ईमारत
बोने होते खेत
हरियाली बचने की कोशिश में
बोना बाग़ लगाती हूँ
अब गमलों में
बरगद, अशोक , अमरुद ,
संतरा और सेव उगाती हूँ ....





Tuesday, April 7, 2009

अग्नि पथ

अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े ,
हों घने , हों बड़े ,
एक पात्र - छांह भी मांग मत , मांग मत , मांग मत !
अग्नि पथ ! अग्नि पथ ! अग्नि पथ !
तू न थकेगा कभी !
तू ना थमेगा कभी !
तू ना मुड़ेगा कभी !
कर शपथ ! कर शपथ ! कर शपथ !
यह महान द्रश्य है -
चल रहा मनुष्य है ,
अश्रु -स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ , लथपथ !
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ !
हरिवंशराय बच्चन

Sunday, April 5, 2009

दोस्ती .... अब वो कहाँ

दोस्ती का वो अदब अब है कहाँ
जिस्म के शिकार हर तरफ़ यहाँ ।
भटकती हैं राहें यारां चारो सिम्त
कौन जाने किसकी मंजिल है कहाँ ।
गा रहा है दीवाना मलंग कोई
ना मै यहाँ हूँ ना तू है वहाँ ।
वो तो मौसम ही मेहरबान हो गया था
वरना तेज धूप में बरसात कहाँ ।
टूटे कांच सा चुभता है हर लम्हा
तुमने महसूस किया है ये दर्द कहाँ ।
हँसते हँसते आंसू पी जाते हो तुम
आंसूओं के साथ जीते है हम यहाँ ।

किनारे पर .... ज़िन्दगी

मरे मन की तरंगों सी
उठती हैं सागर में हिलोरें
पथरीले किनारों सी टकराकर
करती हैं जाने क्या बातें ।
बेजान से दिखने वाले
सह्रदय किनारे
सब कुछ सुनते हैं
पर खामोश रहते हैं ।
व्यथा अपने में समेट कर
उसे मर्यादा में बंधे रहते हैं ।
भावनाओं के साथ बह जाना
शायद इन्होने नही सीखा है
तभी तो इनका ह्रदय भी
इनके जैसा पथरीला है ।
समय के थपेडों ने घिस घिस कर
चिकना बना दिया है
वक्त की काई भी जम गई है ।
अब तो सागर को भी
इन पत्थरों से सर मारने की
आदत सी हो गई है ।